भारत में रीटेल क्षेत्र के भीतर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई नया नहीं है लेकिन अब तक यह एकल ब्रांड तक ही महदूद था. अब जबकि केंद्र सरकार ने मल्टीब्रांड में एफडीआई के लिए रीटेल क्षेत्र को खोलने का फैसला ले लिया है, तो उसकी आलोचना हो रही है. सरकार का रवैया बिल्कुल वैसा ही अडि़यल है, जैसा 2005 में अमरीका के साथ नाभिकीय संधि के दौरान दिखा था. इस मौके पर हमें कुछ साल पहले नाभिकीय रिएक्टर बनाने वाली लॉबी द्वारा अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर भारत के साथ नाभिकीय संधि करने संबंधी बनाए गए भारी दबाव को याद करना होगा, जिसके आगे अपनी सरकार के वजूद को खतरे में डालकर यूपीए-1 के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घुटने टेक दिए थे, जिसके बाद संसद ने इसे मंजूरी दे दी थी. और अब विदेशी रिटेल कंपनियों की लॉबिंग और दबाव के चलते यूपीए 2 के मंत्रिमंडल ने भारतीय खुदरा व्यापार में 51 फीसदी विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी है.
दरअसल वाल मार्ट 2007 से ही अमरीकी कानून निर्माताओं के बीच भारत में अपने प्रवेश की योजना को लेकर पैरवी व प्रचार करता रहा है और इसके द्वारा पक्षपोषित मुद्दों में भारत में निवेश के लिए संवर्द्धित बाजार पहुंच भी शामिल रहा है. 2007 से 2009 के बीच कंपनी ने लॉबिंग पर 52 करोड़ रुपए खर्च किए. पंद्रह देशों में कारोबार और सालाना 400 अरब डॉलर के कुल विक्रय वाली अमरीका की इस शीर्ष कंपनी ने वहां और भारत दोनों ही जगहों पर तगड़ी लॉबिंग की है.
वॉशिंगटन से जारी पीटीआई की रिपोर्ट कहती है- हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स और सीनेट में दर्ज हालिया लॉबिंग डिसक्लोज़र रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका की कंपनियों और उद्योग समूहों ने 2012 की शुरुआत से लेकर अब तक लॉबिंग पर लाखों डॉलर खर्च किए हैं जिनके तहत भारत में एफडीआई, भारत के कराधान ढांचे में बदलाव और व्यापार संबंधी अन्य मुद्दे शामिल हैं.
रिपोर्ट कहती है कि वाल मार्ट ने 30 जून 2012 को खत्म हुई तिमाही में भारत में एफडीआई से संबंधित व अन्य मुद्दों पर लॉबिंग के लिए 15 लाख डॉलर खर्च किए हैं. रिपोर्ट बताती है कि कंपनी ने 2010 के शुरुवाती तीन महीनों में भारत में एफडीआई संबंधी परिचर्चा पर छह करोड़ रुपए खर्च किए हैं.
विदेशी बाजारों में पहुंच के लिए विशाल कॉरपोरेट घराने अकेले लॉबिंग का ही इस्तेमाल नहीं करते. वे अपने देश के बड़े राजनीतिक रसूख वाले लोगों को भी अपने बोर्ड में शामिल करते हैं जो दूसरी सरकारों पर कॉरपोरेट हितों को पूरा करने के लिए पूरी बेशर्मी से दबाव बनाते हैं. ज़रा देखिए कि कैसे नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास को सितम्बर 2009 में भेजे अपने संदेश में (प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल शुरू होने के कुछ दिनों बाद) अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन अप्रत्यक्ष तौर पर वाल मार्ट के प्रवेश का संदर्भ उठाती हैं (हिंदू-विकीलीक्स इंडिया केबल सीरीज़ः 18 मार्च 2011 के मुताबिक): शर्मा (वाणिज्य मंत्री) भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दिशानिर्देशों पर क्या राय रखते हैं, किन क्षेत्रों को खोलने की उनकी योजना है, मल्टीब्रांड रीटेल को खोलने में उन्हें संकोच क्यों है.
हिलेरी के इन सवालों और वाल मार्ट के हितों के बीच रिश्तों पर अगर अब भी भरोसा ना हो तो एबीसी न्यूज़ की 31 जनवरी 2008 की रिपोर्ट देखें जिसका शीर्षक था ''यूनियनों पर वाल मार्ट के दमन पर क्लिंटन खामोश''. रिपोर्ट कहती है कि वाल मार्ट के बोर्ड में निदेशक रहते हुए हिलेरी ने दसियों हजार डॉलर कमाए और वाल मार्ट के अधिकारियों व लॉबिस्टों ने 2007-08 में उनके चुनाव प्रचार पर हजारों डॉलर खर्च किए. यह भी कहा गया है कि निदेशक के तौर पर हिलेरी ''कंपनी की वफादार बनी रहीं.''
इस तरह यह कहा जा सकता है कि रीटेल और अन्य क्षेत्रों को 100 फीसदी एफडीआई के लिए खोलना भारतीय अर्थव्यवस्था की ज़रुरत नहीं है बल्कि मनमोहन सिंह की सरकार की इस बेचैनी के पीछे ''विदेशी हाथ'' है. रीटेल के अलावा अन्य कारोबारों में भी अमरीकी कंपनियां बाजार पहुंच की कवायद कर रही हैं. इनमें डाउ केमिकल्स का भी नाम है जिसने पिछली तिमाही ''ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप मार्केट ऐक्सेस इंडिया'' के मुद्दे पर 36 लाख डॉलर खर्च किए. भारत के साथ व्यापार से जुड़े मसलों पर खर्च करने वाली अन्य कंपनियों में डेल, मोर्गन स्टेनली, जि़रॉक्स, कारगिल, एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज़ एसोसिएशन ऑफ अमरीका और चैम्बर ऑफ कॉमर्स ऑफ यूएस शामिल हैं.
दुनिया भर में कॉफी की दुकानों की श्रृंखला चलाने वाला स्टारबक्स भारत में एकल ब्रांड रीटेल में 100 फीसदी एफडीआई के लिए लॉबिंग करता रहा है. अमरीकी सीनेट के सामने दिए गए डिसक्लोज़र बयान के मुताबिक कंपनी ने 2011 की पहली छमाही में ''भारत में बाजार खोलने संबंधी पहलों'' पर एक करोड़ रुपए खर्च किए थे. ध्यान देने की बात है कि स्टारबक्स की पहल कामयाब हुई क्योंकि भारत सरकार ''विदेशी दबाव'' के आगे झुक गई और कुछ समय पहले वो एकल ब्रांड रीटेल में 100 फीसदी एफडीआई को मंजूरी दे चुकी है.
अब सवाल उठता है कि भारत में रीटेल बाजार तक पहुंच के लिए विदेशी कॉरपोरेट ने इतनी तगड़ी लॉबिंग क्यों की? इसे समझने के लिए हमें भारत में रीटेल बाज़ार का आकलन करना होगा. भारत का खुदरा क्षेत्र बहुत बिखरा हुआ है और यहां 97 फीसदी कारोबार असंगठित खुदरा विक्रेता चलाते हैं. इसीलिए भारत के खुदरा क्षेत्र में भारी संभावनाएं देखी जाती हैं और अनुमान के मुताबिक 2007 के 330 अरब डॉलर के मुकाबले इसकी बढ़त 2015 में दोगुना यानी 640 अरब डॉलर हो जाएगी. इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च एंड इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के अनुमान के मुताबिक 2006-07 में असंगठित रीटेल का कुल सालाना कारोबार भारत में 408.8 अरब डॉलर और पारंपरिक खुदरा दुकानों की कुल संख्या 1.3 करोड़ थी. एक अध्ययन के मुताबिक भारतीय खुदरा बाजार का आकार अनुमानतः 704 करोड़ रुपए का है जो कुल खुदरा बाजार का सिर्फ 3 फीसदी है. एक रिपोर्ट कहती है कि 2003 से 2008 के बीच खुदरा बिक्री सालाना 8.3 फीसदी की दर से बढ़ती रही है.
विश्लेषकों के मुताबिक अगले दस साल में यह क्षेत्र 9 फीसदी सालाना की दर से बढ़ेगा और संगठित खुदरा दुकानों की संख्या में भी वृद्धि होगी. उन्हें उम्मीद है कि संगठित खुदरा कारोबार मौजूदा 4 फीसदी से 2018 में 25 फीसदी पर पहुंच जाएगा. वे मानते हैं कि भारत में संगठित खुदरा बाजार के विकास की भारी संभावनाएं हैं चूंकि यहां उपभोक्ता बाजार बहुत बड़ा है. कृषि के बाद यह क्षेत्र रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत है और ग्रामीण भारत में इसकी गहरी पहुंच है, जहां देश के जीडीपी में 10 फीसदी से ज्यादा का यह योगदान दे रहा है.
भारत का विशाल खुदरा क्षेत्र खोलने से आखिर किसे फायदा होगा. क्या इससे भारतीस उपभोक्ताओं को लाभ होगा या किसानों को. कहीं यह विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों के हितों को तो साधने में ही नहीं लग जाएगा. कुछ लोग सरकारी दलील देते हैं कि मलटीब्रांड रीटेल में एफडीआई से बड़े पैमाने पर देश में विदेशी पूंजी आएगी जिससे वित्तीय घाटा कम होगा और परिणामस्वरूप आर्थिक वृद्धि होगी. बार-बार वे एक ही दलील देते हैं कि रीटेल में एफडीआई को लाने से बिचैलियों की समाप्ति हो जाएगी जिससे न सिर्फ किसान बल्कि उपभोक्ता भी फायदे में रहेगा. यदि हम संगठित खुदरा क्षेत्र के काम करने के वास्तवित तरीके पर नज़र डालें तो यह दलील कहीं नहीं ठहरती.
सच्चाई यह है कि पूरे काम में बिचौलियों से निजात नहीं पाया जा सकता. फर्क बस यह आएगा कि मौजूदा बिचैलियों की जगह बड़े और अमीर बिचैलिए आ जाएंगे और ये सभी खुद रीटेलर के अपने लोग होंगे. यह बात ध्यान देने की है कि किसान से खुदरा दुकानदार को सीधी बिक्री तब तक नहीं हो सकती जब तक कि रीटेलर का अपना खेत न हो.
जहां तक किसान के लाभान्वित होने का तर्क है तो यह विचार भी गड़बड़ जान पड़ता है. जो लोग यह कहते हैं कि रीटेल में एफडीआई से किसानों को बेहतर दाम मिलेगा और उपभोक्ता को कम पैसे चुकाने पड़ेंगे उन्हें इस बात का जवाब देना चाहिए कि जब घरेलू रीटेलरों के कामकाज से किसानों को लाभ नहीं मिल सका है तो विदेशी रीटेलरों से यह कैसे संभव होगा. इसके अलावा विशाल बहुराष्ट्रीय रीटेलरों के कारोबार का मंत्र ही होता है ''सबसे कम में खरीदो, सबसे ज्यादा में बेचो.'' ऐसे रीटेलर बाजार में अपनी शर्तें चलाने के हिसाब से काम करते हैं. चूंकि उनका काम ही अधिकतम मुनाफा कमाना है, इसलिए वे किसानों का न्यूनतम भुगतान करेंगे. चूंकि फल और सब्जियां जल्द खराब होने वाली चीज़ें हैं और देश में प्रशीतन का ढांचा अच्छा नहीं है, लिहाजा किसानों को रीटेलरों के मनमाफिक दाम पर अपने उत्पाद बेचने पड़ेंगे.
भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान को एक बार पश्चिमी देशों में किसानों के हालात पर नज़र दौड़ा लेनी चाहिए जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रीटेल श्रृंखला पर कब्ज़ा है. कई रिपोर्टें पश्चिम से इस बाबत आ रही हैं कि खेती के निगमीकरण और खरीद की प्रक्रिया में प्रसंस्करण कंपनियों व रीटेलरों के वर्चस्व के चलते हजारों किसानों को खेती छोड़ देनी पड़ी.
रिपोर्टें आ रही हैं कि अमरीका में छोटे किसानों पर खतरा है और साल दर साल भारी संख्या में वे खेती छोड़ कर जा रहे हैं. हालत यह हो गई है कि इंग्लैंड में रायल एसोसिएशन आफ ब्रिटिश डेयरी फार्मर्स ने शिकायत की है कि ताज़े दूध के बदले किसानों को जो कीमत मिल रही है वह बेहद कम है औसत किसान को प्रति लीटर उत्पादित दूध पर नुकसान हो रहा है जबकि पिछले कुछ वर्षों में इसी से सुपरमार्केट को हो रहा मुनाफा लगातार बढ़ा है. भारत में उपभोक्ता एक लीटर दूध के लिए जितने पैसे देता है, उसका 75 फीसदी तक किसान को मिल जाता है.
मल्टीब्रांड रीटेल में एफडीआई को मंजूरी देने के बाद तो अब भारत का डेयरी किसान भी बरबाद हो जाएगा. सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए जो अनिवार्यता रखी थी कि उन्हें अपनी जरूरत के सामान का 30 फीसदी स्थानीय स्तर पर ही जुटाना होगा, कंपनियों के दबाव को देखते हुए उसे भी छोड़ना पडा. ये कंपनियां आम तौर पर अपने देश से सामान का आयात करती हैं या फिर उन देशों से जहां श्रम सस्ता है (जैसे चीन). इसके अलावा गैट समझौते का अनुच्छेद 3 किसी भी पक्ष के लिए यह अनिवार्य करता है कि वह दूसरे पक्ष के साथ अनुबंध के तहत उसके उत्पादों को ‘‘राष्ट्रीय बरताव’’ प्रदान करे. इसमें साफ तौर पर घरेलू उद्योगों से संसाधन लेने की जरूरत संबंधी नियमन को बाहर रखा गया है. चूंकि भारत ने इन्हीं शर्तों पर विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ली थी, लिहाजा सिर्फ भारतीय उद्यमों से 30 फीसदी संसाधन लेने की बाध्यता वह लागू नहीं कर सकता क्योंकि इसे दूसरे देश चुनौती दे देंगे.
इसके अतिरिक्त भारत ने 71 देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संवर्द्धन और संरक्षण संधियां की हुई हैं जिसके तहत इन देशों के निवेशकों के साथ ‘‘राष्ट्रीय बरताव’’ किया जाना होगा.
ज़ाहिर है ये देश अपने यहां के छोटे और मझोले उद्यमों से सामग्री आयात की बात करेंगे. केर सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट ‘‘यूएस फार्म क्राइसिस’’ कहती है कि ‘‘हाल के वर्षों में विशाल निगमों ने उत्पादन अनुबंध और ऐसे ही अन्य एकीकरण उपकरणों के माध्यम से किसानों की आजादी को छीना है.’’ प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामिनाथन द्वारा इसी संदर्भ में कहे गए ये शब्द हमेशा याद रखने होंगे- ‘‘किसानों की जरूरतों, सुरक्षा और मोलभाव करने की उसकी क्षमता को सुनिश्चित किए बगैर अनुबंध खेती की जल्दबाजी इस क्षेत्र में भारी विस्थापन पैदा करेगी.’’
मई 209 में रीटेल पर एफडीआई विषय पर वाणिज्य पर संसदीय समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों को भी नहीं भुलाया जाना होगा, जिसमें उसने सभी पहलुओं को संज्ञान में लेकर सभी पक्षकारों से बातचीत करने के बाद रीटेल में एफडीआई को मंजूरी नहीं देने की सिफारिश की थी. दिक्कत यह है कि जब विदेशी कारपोरेट ही यूपीए सरकार को चला रहे हों, तो भारतीय किसानों के प्रति सरोकारों की उम्मीद उनसे कैसे की जा सकती है.
फैसला वाल मार्ट जैसी विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में ही आया है, जो बरसों से इसके लिए काफी कवायद कर रही हैं. ये बात वाल मार्ट के अंतरराष्ट्रीय डिवीज़न के मुखिया जोन मेन्ज़र के 2005 की सालाना बैठक में कही गयी इस बात से भी साफ़ हो जाता है- ‘‘सरकार के साथ अपनी छह बैठकों में हमने वाल मार्ट की काफी अच्छी छवि स्थापित की है...’’ और ‘‘हमने भारत में एफडीआई लाबी को प्रोत्साहित कर विरोधी लाबी के प्रयासों को पहले ही चिह्नित कर लिया है."
दरअसल वाल मार्ट 2007 से ही अमरीकी कानून निर्माताओं के बीच भारत में अपने प्रवेश की योजना को लेकर पैरवी व प्रचार करता रहा है और इसके द्वारा पक्षपोषित मुद्दों में भारत में निवेश के लिए संवर्द्धित बाजार पहुंच भी शामिल रहा है. 2007 से 2009 के बीच कंपनी ने लॉबिंग पर 52 करोड़ रुपए खर्च किए. पंद्रह देशों में कारोबार और सालाना 400 अरब डॉलर के कुल विक्रय वाली अमरीका की इस शीर्ष कंपनी ने वहां और भारत दोनों ही जगहों पर तगड़ी लॉबिंग की है.
वॉशिंगटन से जारी पीटीआई की रिपोर्ट कहती है- हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स और सीनेट में दर्ज हालिया लॉबिंग डिसक्लोज़र रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका की कंपनियों और उद्योग समूहों ने 2012 की शुरुआत से लेकर अब तक लॉबिंग पर लाखों डॉलर खर्च किए हैं जिनके तहत भारत में एफडीआई, भारत के कराधान ढांचे में बदलाव और व्यापार संबंधी अन्य मुद्दे शामिल हैं.
रिपोर्ट कहती है कि वाल मार्ट ने 30 जून 2012 को खत्म हुई तिमाही में भारत में एफडीआई से संबंधित व अन्य मुद्दों पर लॉबिंग के लिए 15 लाख डॉलर खर्च किए हैं. रिपोर्ट बताती है कि कंपनी ने 2010 के शुरुवाती तीन महीनों में भारत में एफडीआई संबंधी परिचर्चा पर छह करोड़ रुपए खर्च किए हैं.
विदेशी बाजारों में पहुंच के लिए विशाल कॉरपोरेट घराने अकेले लॉबिंग का ही इस्तेमाल नहीं करते. वे अपने देश के बड़े राजनीतिक रसूख वाले लोगों को भी अपने बोर्ड में शामिल करते हैं जो दूसरी सरकारों पर कॉरपोरेट हितों को पूरा करने के लिए पूरी बेशर्मी से दबाव बनाते हैं. ज़रा देखिए कि कैसे नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास को सितम्बर 2009 में भेजे अपने संदेश में (प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल शुरू होने के कुछ दिनों बाद) अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन अप्रत्यक्ष तौर पर वाल मार्ट के प्रवेश का संदर्भ उठाती हैं (हिंदू-विकीलीक्स इंडिया केबल सीरीज़ः 18 मार्च 2011 के मुताबिक): शर्मा (वाणिज्य मंत्री) भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दिशानिर्देशों पर क्या राय रखते हैं, किन क्षेत्रों को खोलने की उनकी योजना है, मल्टीब्रांड रीटेल को खोलने में उन्हें संकोच क्यों है.
हिलेरी के इन सवालों और वाल मार्ट के हितों के बीच रिश्तों पर अगर अब भी भरोसा ना हो तो एबीसी न्यूज़ की 31 जनवरी 2008 की रिपोर्ट देखें जिसका शीर्षक था ''यूनियनों पर वाल मार्ट के दमन पर क्लिंटन खामोश''. रिपोर्ट कहती है कि वाल मार्ट के बोर्ड में निदेशक रहते हुए हिलेरी ने दसियों हजार डॉलर कमाए और वाल मार्ट के अधिकारियों व लॉबिस्टों ने 2007-08 में उनके चुनाव प्रचार पर हजारों डॉलर खर्च किए. यह भी कहा गया है कि निदेशक के तौर पर हिलेरी ''कंपनी की वफादार बनी रहीं.''
इस तरह यह कहा जा सकता है कि रीटेल और अन्य क्षेत्रों को 100 फीसदी एफडीआई के लिए खोलना भारतीय अर्थव्यवस्था की ज़रुरत नहीं है बल्कि मनमोहन सिंह की सरकार की इस बेचैनी के पीछे ''विदेशी हाथ'' है. रीटेल के अलावा अन्य कारोबारों में भी अमरीकी कंपनियां बाजार पहुंच की कवायद कर रही हैं. इनमें डाउ केमिकल्स का भी नाम है जिसने पिछली तिमाही ''ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप मार्केट ऐक्सेस इंडिया'' के मुद्दे पर 36 लाख डॉलर खर्च किए. भारत के साथ व्यापार से जुड़े मसलों पर खर्च करने वाली अन्य कंपनियों में डेल, मोर्गन स्टेनली, जि़रॉक्स, कारगिल, एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज़ एसोसिएशन ऑफ अमरीका और चैम्बर ऑफ कॉमर्स ऑफ यूएस शामिल हैं.
दुनिया भर में कॉफी की दुकानों की श्रृंखला चलाने वाला स्टारबक्स भारत में एकल ब्रांड रीटेल में 100 फीसदी एफडीआई के लिए लॉबिंग करता रहा है. अमरीकी सीनेट के सामने दिए गए डिसक्लोज़र बयान के मुताबिक कंपनी ने 2011 की पहली छमाही में ''भारत में बाजार खोलने संबंधी पहलों'' पर एक करोड़ रुपए खर्च किए थे. ध्यान देने की बात है कि स्टारबक्स की पहल कामयाब हुई क्योंकि भारत सरकार ''विदेशी दबाव'' के आगे झुक गई और कुछ समय पहले वो एकल ब्रांड रीटेल में 100 फीसदी एफडीआई को मंजूरी दे चुकी है.
अब सवाल उठता है कि भारत में रीटेल बाजार तक पहुंच के लिए विदेशी कॉरपोरेट ने इतनी तगड़ी लॉबिंग क्यों की? इसे समझने के लिए हमें भारत में रीटेल बाज़ार का आकलन करना होगा. भारत का खुदरा क्षेत्र बहुत बिखरा हुआ है और यहां 97 फीसदी कारोबार असंगठित खुदरा विक्रेता चलाते हैं. इसीलिए भारत के खुदरा क्षेत्र में भारी संभावनाएं देखी जाती हैं और अनुमान के मुताबिक 2007 के 330 अरब डॉलर के मुकाबले इसकी बढ़त 2015 में दोगुना यानी 640 अरब डॉलर हो जाएगी. इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च एंड इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के अनुमान के मुताबिक 2006-07 में असंगठित रीटेल का कुल सालाना कारोबार भारत में 408.8 अरब डॉलर और पारंपरिक खुदरा दुकानों की कुल संख्या 1.3 करोड़ थी. एक अध्ययन के मुताबिक भारतीय खुदरा बाजार का आकार अनुमानतः 704 करोड़ रुपए का है जो कुल खुदरा बाजार का सिर्फ 3 फीसदी है. एक रिपोर्ट कहती है कि 2003 से 2008 के बीच खुदरा बिक्री सालाना 8.3 फीसदी की दर से बढ़ती रही है.
विश्लेषकों के मुताबिक अगले दस साल में यह क्षेत्र 9 फीसदी सालाना की दर से बढ़ेगा और संगठित खुदरा दुकानों की संख्या में भी वृद्धि होगी. उन्हें उम्मीद है कि संगठित खुदरा कारोबार मौजूदा 4 फीसदी से 2018 में 25 फीसदी पर पहुंच जाएगा. वे मानते हैं कि भारत में संगठित खुदरा बाजार के विकास की भारी संभावनाएं हैं चूंकि यहां उपभोक्ता बाजार बहुत बड़ा है. कृषि के बाद यह क्षेत्र रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत है और ग्रामीण भारत में इसकी गहरी पहुंच है, जहां देश के जीडीपी में 10 फीसदी से ज्यादा का यह योगदान दे रहा है.
भारत का विशाल खुदरा क्षेत्र खोलने से आखिर किसे फायदा होगा. क्या इससे भारतीस उपभोक्ताओं को लाभ होगा या किसानों को. कहीं यह विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों के हितों को तो साधने में ही नहीं लग जाएगा. कुछ लोग सरकारी दलील देते हैं कि मलटीब्रांड रीटेल में एफडीआई से बड़े पैमाने पर देश में विदेशी पूंजी आएगी जिससे वित्तीय घाटा कम होगा और परिणामस्वरूप आर्थिक वृद्धि होगी. बार-बार वे एक ही दलील देते हैं कि रीटेल में एफडीआई को लाने से बिचैलियों की समाप्ति हो जाएगी जिससे न सिर्फ किसान बल्कि उपभोक्ता भी फायदे में रहेगा. यदि हम संगठित खुदरा क्षेत्र के काम करने के वास्तवित तरीके पर नज़र डालें तो यह दलील कहीं नहीं ठहरती.
सच्चाई यह है कि पूरे काम में बिचौलियों से निजात नहीं पाया जा सकता. फर्क बस यह आएगा कि मौजूदा बिचैलियों की जगह बड़े और अमीर बिचैलिए आ जाएंगे और ये सभी खुद रीटेलर के अपने लोग होंगे. यह बात ध्यान देने की है कि किसान से खुदरा दुकानदार को सीधी बिक्री तब तक नहीं हो सकती जब तक कि रीटेलर का अपना खेत न हो.
जहां तक किसान के लाभान्वित होने का तर्क है तो यह विचार भी गड़बड़ जान पड़ता है. जो लोग यह कहते हैं कि रीटेल में एफडीआई से किसानों को बेहतर दाम मिलेगा और उपभोक्ता को कम पैसे चुकाने पड़ेंगे उन्हें इस बात का जवाब देना चाहिए कि जब घरेलू रीटेलरों के कामकाज से किसानों को लाभ नहीं मिल सका है तो विदेशी रीटेलरों से यह कैसे संभव होगा. इसके अलावा विशाल बहुराष्ट्रीय रीटेलरों के कारोबार का मंत्र ही होता है ''सबसे कम में खरीदो, सबसे ज्यादा में बेचो.'' ऐसे रीटेलर बाजार में अपनी शर्तें चलाने के हिसाब से काम करते हैं. चूंकि उनका काम ही अधिकतम मुनाफा कमाना है, इसलिए वे किसानों का न्यूनतम भुगतान करेंगे. चूंकि फल और सब्जियां जल्द खराब होने वाली चीज़ें हैं और देश में प्रशीतन का ढांचा अच्छा नहीं है, लिहाजा किसानों को रीटेलरों के मनमाफिक दाम पर अपने उत्पाद बेचने पड़ेंगे.
भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान को एक बार पश्चिमी देशों में किसानों के हालात पर नज़र दौड़ा लेनी चाहिए जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रीटेल श्रृंखला पर कब्ज़ा है. कई रिपोर्टें पश्चिम से इस बाबत आ रही हैं कि खेती के निगमीकरण और खरीद की प्रक्रिया में प्रसंस्करण कंपनियों व रीटेलरों के वर्चस्व के चलते हजारों किसानों को खेती छोड़ देनी पड़ी.
रिपोर्टें आ रही हैं कि अमरीका में छोटे किसानों पर खतरा है और साल दर साल भारी संख्या में वे खेती छोड़ कर जा रहे हैं. हालत यह हो गई है कि इंग्लैंड में रायल एसोसिएशन आफ ब्रिटिश डेयरी फार्मर्स ने शिकायत की है कि ताज़े दूध के बदले किसानों को जो कीमत मिल रही है वह बेहद कम है औसत किसान को प्रति लीटर उत्पादित दूध पर नुकसान हो रहा है जबकि पिछले कुछ वर्षों में इसी से सुपरमार्केट को हो रहा मुनाफा लगातार बढ़ा है. भारत में उपभोक्ता एक लीटर दूध के लिए जितने पैसे देता है, उसका 75 फीसदी तक किसान को मिल जाता है.
मल्टीब्रांड रीटेल में एफडीआई को मंजूरी देने के बाद तो अब भारत का डेयरी किसान भी बरबाद हो जाएगा. सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए जो अनिवार्यता रखी थी कि उन्हें अपनी जरूरत के सामान का 30 फीसदी स्थानीय स्तर पर ही जुटाना होगा, कंपनियों के दबाव को देखते हुए उसे भी छोड़ना पडा. ये कंपनियां आम तौर पर अपने देश से सामान का आयात करती हैं या फिर उन देशों से जहां श्रम सस्ता है (जैसे चीन). इसके अलावा गैट समझौते का अनुच्छेद 3 किसी भी पक्ष के लिए यह अनिवार्य करता है कि वह दूसरे पक्ष के साथ अनुबंध के तहत उसके उत्पादों को ‘‘राष्ट्रीय बरताव’’ प्रदान करे. इसमें साफ तौर पर घरेलू उद्योगों से संसाधन लेने की जरूरत संबंधी नियमन को बाहर रखा गया है. चूंकि भारत ने इन्हीं शर्तों पर विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ली थी, लिहाजा सिर्फ भारतीय उद्यमों से 30 फीसदी संसाधन लेने की बाध्यता वह लागू नहीं कर सकता क्योंकि इसे दूसरे देश चुनौती दे देंगे.
इसके अतिरिक्त भारत ने 71 देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संवर्द्धन और संरक्षण संधियां की हुई हैं जिसके तहत इन देशों के निवेशकों के साथ ‘‘राष्ट्रीय बरताव’’ किया जाना होगा.
ज़ाहिर है ये देश अपने यहां के छोटे और मझोले उद्यमों से सामग्री आयात की बात करेंगे. केर सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट ‘‘यूएस फार्म क्राइसिस’’ कहती है कि ‘‘हाल के वर्षों में विशाल निगमों ने उत्पादन अनुबंध और ऐसे ही अन्य एकीकरण उपकरणों के माध्यम से किसानों की आजादी को छीना है.’’ प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामिनाथन द्वारा इसी संदर्भ में कहे गए ये शब्द हमेशा याद रखने होंगे- ‘‘किसानों की जरूरतों, सुरक्षा और मोलभाव करने की उसकी क्षमता को सुनिश्चित किए बगैर अनुबंध खेती की जल्दबाजी इस क्षेत्र में भारी विस्थापन पैदा करेगी.’’
मई 209 में रीटेल पर एफडीआई विषय पर वाणिज्य पर संसदीय समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों को भी नहीं भुलाया जाना होगा, जिसमें उसने सभी पहलुओं को संज्ञान में लेकर सभी पक्षकारों से बातचीत करने के बाद रीटेल में एफडीआई को मंजूरी नहीं देने की सिफारिश की थी. दिक्कत यह है कि जब विदेशी कारपोरेट ही यूपीए सरकार को चला रहे हों, तो भारतीय किसानों के प्रति सरोकारों की उम्मीद उनसे कैसे की जा सकती है.
फैसला वाल मार्ट जैसी विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में ही आया है, जो बरसों से इसके लिए काफी कवायद कर रही हैं. ये बात वाल मार्ट के अंतरराष्ट्रीय डिवीज़न के मुखिया जोन मेन्ज़र के 2005 की सालाना बैठक में कही गयी इस बात से भी साफ़ हो जाता है- ‘‘सरकार के साथ अपनी छह बैठकों में हमने वाल मार्ट की काफी अच्छी छवि स्थापित की है...’’ और ‘‘हमने भारत में एफडीआई लाबी को प्रोत्साहित कर विरोधी लाबी के प्रयासों को पहले ही चिह्नित कर लिया है."