Thursday, April 27, 2017

माननीय,

पत्र के प्रारंभ में ही अपनी इस गुस्ताखी के लिए खेद व्यक्त करते है कि हम सीधे तौर पर आपसे मुखातिब हो रहे हैं. हालांकि आपके मंत्रालय के औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग द्वारा बौद्धिक संपदा के अधिकार पर एक नीतिगत मसौदा पेश कर उस पर 31 अक्टूबर 2012 तक राय मांगी गई है. हमारा मानना है कि नीतिगत मुद्दों पर जनता के द्वारा चुना गया राजनैतिक नेतृत्व ही फैसला ले न कि नौकरशाही. अतः हम अपनी राय आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं. 

प्रस्तुत मसौदे के माध्यम से बौद्धिक संपदा की रक्षा के नाम पर यूटिलिटी मॉडल ट्रेड सीक्रेट तथा बौद्धिक संपदा के व्यवसायीकरण की सुविधा के लिये जो सुझाव दिये गये हैं, उससे हम इत्तेफाक नहीं रखते हैं वरन् हम इसे आपत्तिजनक भी मानते हैं. इससे हमारे देश का ही नुकसान होगा तथा समुद्रपारीय बड़े औद्योगिक घरानों को लाभ होगा. निश्चित तौर पर आप भी ऐसा नहीं चाहते होंगे.

यूटिलिटी मॉडल या यूटिलिटी पेंटेट को “पैटी पेटेंट" भी कहा जाता है. इसे केवल कुछ गिने चुने देशों ने ही आत्मसात किया है. एशियाई देशो में इसे चीन जापान तथा मलेशिया ने ही अपनाया है. इसके तहत ऐसे लक्षणों या चीजों के लिऐ एकाधिकार लिया जाता है जिन पर पेटेंट का अधिकार देना संभव नहीं होता है. इसे 5 से 7 वर्षों के लिए दिया जाता है तथा इसकी प्रक्रिया भी आसान होती है. एशियन पेटेंट एटार्नी एसोशियेसन के भारतीय दल द्वारा किये गये अध्ययन के अनुसार इस यूटिलिटी मॉडल का बहुराष्ट्रीय कंपनिया बेजा फायदा उठा सकती है. ऐसे विषयों पर जिन पर पेटेंट का अधिकार न मिल रहा हो उसे वे यूटिलिटी मॉडल के तहत आवेदन कर कम समय के लिये एकाधिकार हासिल कर सकते हैं. इसका उपयोग लघु एवं मध्यम उद्योगों के खिलाफ भी किया जा सकता है. जिनके लिये इसे बनाया जाता है.

आपको यह विदित होगा कि करीब छः वर्ष पूर्व स्विटजरलैंड की महाकाय दवा कंपनी नोर्वाटिस ने हमारे देश में रक्त कैंसर की दवा ग्लीवेक प्रस्तुत की थी. यह अत्यंत गुणकारी तथा जीवन रक्षक दवा है, जो एक प्रकार के रक्त कैंसर रोगियों को जीवन पर्यन्त लेनी पड़ती है. इस ग्लीवेक के एक माह के दवा की खुराक की कीमत 1 लाख 20 हजार रूपये पड़ती है. जब एक भारतीय दवा कंपनी नेटको ने इसे 9 हजार रूपये में उपलब्ध कराया तो नोर्वाटिस ने मद्रास उच्च न्यायालय में फरियाद दायर कर इस पर रोक लगवा दी थी. आखिरकार भारतीय पेटेंट कानून की धारा 3(डी) के तहत केवल नये आविष्कारों पर ही 20 वर्षों के लिये पेटेंट अधिकार मिलता है, इंडियन पेटेंट अपीलेट बोर्ड (आईपाब) ने नोर्वाटिस कंपनी का ग्लीवेक से पेटेंट अधिकार रद्द कर दिया था।

अब नोर्वाटिस कंपनी द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भारतीय पेटेंट कानून की धारा 3(डी) को ही चुनौती दी गई है कि यह विश्व व्यापार समझौते के खिलाफ है. भारत ही नहीं वरन् दुनिया भर की नजर इस मुकदमे पर लगी हुई है कि सर्वोच्च न्यायालय क्या फैसला लेता है. इसी फैसले पर नयी आवश्यक दवाओं का भविष्य निर्भर करता है कि क्या उन्हें भारत में सस्ते दामों पर उपलब्ध कराया जा सकता है कि नहीं ? ठीक ऐसे समय यूटिलिटी मॉडल या यूटिलिटी पेटेंट का कानून लाना नोर्वाटिस जैसे दवा कंपनियों को चोर दरवाजा दिखलाने के समान महत्व रखता है.

मंत्री जी, अमरीकी पेटेंट एवं ट्रेड मार्क आफिस द्वारा मुहैया कराये गये आंकड़ो के अनुसार सन 2011 में अमरीका में कुल 5 लाख 3 हजार 582 आवेदन यूटिलिटी पेटेंट के लिये जमा कराये गये, जिनमें से 2 लाख 24 हजार 505 आवेदनों पर यूटिलिटी पेटेंट का अधिकार प्रदान किया गया है. उपरोक्त आकड़े यह दर्शाते हैं कि इससे किस प्रकार एकाधिकार यानी पेटेंट पाने के लिये होड़ लग जायेगी. याद रखिये, यदि शिकार की अनुमति प्रदान की जायेगी तो शेर अपने हिस्से के लिये अवश्य झपट्टा मारेगा.

सन् 2012 की स्पेशल 301 रिपोर्ट में भारत को प्रायोरिटी वाच लिस्ट में रखा गया है. बौद्धिक संपदा के अधिकार की रक्षा में पर्याप्त कानून तथा सुविधाएं न देने के कारण (अमरीकी समझदारी के अनुसार) भारत पर दबाव डाला जा रहा है, जिसे हम समझ सकते हैं. आखिरकार आर्थिक मंदी से निकलने के लिये अमरीका को भारत जैसे विकासशील देशों के बाजार की जरूरत है. और बाजार पर बादशाहत कायम करने के लिये कड़े पेटेंट कानून की. 

इसलिये अमरीका की स्पेशल 301 की रिपोर्ट भारत से मांग करती है कि “... स्थायी तथा विश्वसनीय पेटेंट प्रणाली ............. कुछ रसायनिक अवस्थाओं के लिये जो बढ़त दर्शाती है; को पेटेंट प्रदान किया जाये....”. कही ऐसा तो नहीं कि यूटिलिटी मॉडल के द्वारा समुद्रपारीय बहुराष्ट्रीय नैगमों को हरी झंडी दिखाई जा रही है.

औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग द्वारा प्रस्तुत मसौदे में “ट्रेड सीक्रेट” देने की बात कही गई है. अभी तक यह कानून भारत में नहीं है, न ही यह पेटेंट कानून में शामिल है.

संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था विपो जो बौद्धिक संपदा के अधिकार से संबंधित मुद्दो पर निगरानी रखता है; के अनुसार पेटेंट, कापी राईट और ट्रेड मार्क के पश्चात ट्रेड सीक्रेट चौथा बौद्धिक संपदा का अधिकार है. इसके लिये न ही किसी सरकारी संस्था के समझ आवेदन देना पड़ता है और न ही ट्रेड सीक्रेट के लिये कोई नियत समय (पेटेंट के समान) मुक्कमल नहीं होती है. इसे जब तक चाहे, अपने एकाधिकार में रखा जा सकता है.

उदाहरण के तौर पर अमरीका की कोको कोला कंपनी जिसका फार्मूला 100 वर्षों से गोपनीय है तथा कोको कोला कंपनी के एकाधिकार में है. इस फार्मूले को अटलांटा के एक बैंक में लाकर में रख दिया गया है. एक ही समय केवल दो कर्मचारी को यह फार्मूला मालूम होता है, जिसे वे किसी को बता नहीं सकते. यहां तक कि वे एक साथ यात्रा भी नहीं कर सकते हैं. क्या यह मनुष्य के जीवन जीने के अधिकार का अतिक्रमण नहीं है. 

अमरीका के उद्योग जगत में भारत का परचम फैलाने वाले रजत गुप्ता, आज मैकेन्जी एण्ड कंपनी के अधिकारी रहते वक्त उन्हें जो गोपनीय जानकारियॉ प्राप्त हुई थी उन्हें सार्वजनिक करने के लिये जेल में बंद हैं. यह अमरीकी ट्रेड सीक्रेट का ही मामला है. अब तो संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व प्रमुख कोफी अन्नान तथा माइक्रोसाफ्ट के बिल गेट्स भी रजत गुप्ता के बचाव में उतर आये हैं. ट्रेड सीक्रेट ऐसी ही सूचनाओं की गोपनीयता का कानून है जिससे व्यापारिक लाभ उठाया जा सकता है.

वाल-मार्ट भी अपने यहां कार्यरत अधिकारियों-कर्मचारियों से गोपनीयता का पालन करवाता है. अब तो वाल-मार्ट भी भारत आने वाला है. क्या इस मसौदे का उद्देश्य उन्हें सुविधाएं प्रदान करने से है ? ऐसे किसी भी फार्मूला, ड्राइंग, विधि, व्यापारिक उपकरण या आविष्कार जिस पर पेटेंट मिलने की उम्मीद न हो, उन्हें ट्रेड सीक्रेट की श्रेणी में रखा जा सकता है. किसी फाईल पर गोपनीय लिख देना भी इसे इस श्रेणी में ला सकता है. 

जोसेफ एन होस्टेनी जो अमरीका के बौद्धिक संपदा के अधिकार के एक वकील हैं; के अनुसार पेटेंट की अपेक्षा ट्रेड सीक्रेट मजबूती से बौद्धिक संपदा की रक्षा करता है. जिस पर पेटेंट नहीं मिल पाता, उस पर वे अपने मुवक्किल को ट्रेड सीक्रेट लेने के लिये मशवरा देते हैं. 

अपने 2012 के स्पेशल 301 रिपोर्ट में अमरीका भारत को नसीहत देता है कि “........... एक ऐसे प्रभावी प्रणाली की स्थापना की जाये, जो सूचनाओं के अन्नायपूर्ण प्रकटीकरण की रक्षा करे...” क्या हम इसे भी ट्रेड सीक्रेट से जोड़कर देखें ? यूटिलिटी मॉडल तथा ट्रेड सीक्रेट जैसे जघन्य बौद्धिक संपदा के अधिकार प्रदत्त करने की भारत जैसे विकासशील देशों को कोई आवश्यकता नहीं है और न ही विश्व व्यापार समझौते के अनुसार यह अनिवार्य है. इन्हें सिरे से खारिज कर देना चाहिये. हमने सन् 2005 में अपने पेटेंट कानून में विश्व व्यापार समझौते में उपलब्ध लचीलेपन का फायदा उठाते हुए पर्याप्त संशोधन कर दिया था. अब फिर से आफत की पुड़िया का खोलने की जरूरत नहीं है.

माननीय मंत्री जी, साधारण या ध्यान न देने योग्य बढ़त/आविष्कार तथा झूठे आविष्कार पर पेटेंट प्रदान करने के लिये यूटिलिटी मॉडल तथा ट्रेड सीक्रेट, बौद्धिक संपदा की रक्षा के लिये मसौदा प्रस्तुत करने के पश्चात, बौद्धिक संपदा के व्यवसायीकरण के लिये ठोस सुझाव दिये गये हैं. जिसमें दूसरे व्यक्ति या संगठन (पढ़ें कंपनी) को व्यवसायिक उपयोग की अनुमति देना, एक से ज्यादा कंपनियों को आपस में बौद्धिक संपदा पर समझौते की अनुमति देना, विक्रय-विलय तथा अधिग्रहण बौद्धिक संपदा या संपूर्ण कंपनी का, बौद्धिक संपदा के अधिकार को स्थायित्य प्रदान करने जैसे सुझाव शामिल हैं. 

यदि इन पर अमल किया जायेगा तो विदेशी कंपनिया भारत में आकर देशी कंपनियों को खरीद-विलय या अधिग्रहित करने लगेंगी. जिससे भारतीय व्यापारी बाजार से ढकेल कर मुख्य मार्ग में खड़े कर दिये जायेंगे. उदाहरण के तौर पर दवा उद्योग में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाजत होने के कारण भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनी रैनबेक्सी को सन् 2008 में जापान के दाइची सेन्क्यो ने तथा पीरामल हेल्य केयर को सन् 2010 में अमरीका के एबाट ने खरीद लिया है. यह परिदृश्य अन्य उद्योगो में भी लागू करवाने के लिये उपरोक्त सुझाव मसौदे में दिया गया है. 

मंत्री महोदय, यह बात हमारी समझ से बाहर है कि क्यों राज्य ऐसी भूमिका निबाहना चाहता है जिससे उसके बाशिंदों को तकलीफ हो. पेटेंट अधिकार देने से प्रतियोगिता कम हो जाती है जिससे उत्पादों का मूल्य बढ़ जाता है. यह सच है कि इससे बड़े घरानों को और भी ज्यादा लाभ होगा. 

भारत सरकार की संस्था कांउसिल ऑफ साइंटिफिक एण्ड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सी.एस.आई.आर) द्वारा सेरीब्रल मलेरिया की दवा अल्फा बीटा आर्टीइथर का ईजाद किया गया लेकिन व्यवसायीकरण के लिये इसे थेमिस नामक भारतीय दवा कंपनी को रायल्टी लेकर हस्तांतरित कर दिया गया था. आज थेमिस की यही दवा ई माल सबसे ज्यादा बिकती है. इसी संस्था द्वारा दमे के लिये ईजाद की गई आर्युवेदिक दवा एसमोन को एक निजी कंपनी को दे दिया गया है.

सी.एस.आई.आर ने भारत की बड़ी दवा कंपनी सिपला को भी अपनी ईजाद की हुई दवा विक्रय के लिये दिया है. इससे यह यक्ष प्रश्न खड़ा होता है कि भारत सरकार की अनुसंधान करने वाली संस्थाएं जो करदाताओं के पैसे से चलती हैं, क्यों कर इन बहुमूल्यवान ईजादों को निजी कंपनियों को मुनाफा कमाने के लिये दे देती हैं. क्या बौद्धिक संपदा के व्यवसायीकरण के नाम पर ऐसे ही क्रियाकलाप किये जाने वाले हैं ?

उक्त मसौदा बौद्धिक संपदा के अधिकार की रक्षा के लिए हमारे देश में एक संस्कृति विकसित करने की भी सलाह देता है. इसका तात्पर्य क्या है ? क्या इस संस्कृति का अर्थ बौद्धिक संपदा का प्रचार-प्रसार करके इसके खिलाफ उठने वाली आवाज को भोथरा करना नहीं है? कुछ वर्ष पहले कनाडा के एक किसान के खेत में मोनसांटो का पेटेंटेड पौधा उग आया. उसने उसे रोपा नहीं था वरन वह तो पराग कणों के साथ कीटों द्वारा लाया गया था. मोनसांटो उस किसान को अदालत में घसीट लाया. माननीय अदालत ने भी फैसला सुनाया कि किसान ने चोरी नहीं की है लेकिन उसने एक पेटेंटेड पौधे को अपने खेत में उगने दिया. यह किसान का कर्तव्य बनता था कि वह अपने खेत में किसी और के पेटेंटेड बीज को उगने से रोके. वाह! क्या खूब कही. क्या हमारे देश में बौद्धिक संपदा के लिये ऐसी संस्कृति विकसित करने की आवश्यकता है ?

इस मसौदे के अलावा भी बौद्धिक संपदा के मामले में हमारा देश वैसे भी पिछड़ा हुआ है. कंट्रोलर जनरल ऑफ पेटेंट डिजाईन, ट्रेडमार्क्स एवं जियोग्राफिकल इंडीकेशन्स के द्वारा प्रदत्त आकड़े क्या साबित करते हैं. सन् 2009-2010 में भारत में 34 हजार 287 तथा 2010-2011 में 39 हजार 400 पेटेंट आवेदन प्राप्त हुए. अब जरा सन 2009-2010 के आवेदनों को क्षेत्रवार ढंग से भी देखें. भारतीयों ने 237, कामनवेल्थ देशों ने 1923, अमरीका ने 9188, यूरोप ने 10587, अफ्रीका ने 88 तथा एशिया से 3683 आवेदन आये. कुल 25469 आवेदनों में भारतीयों के आवेदन केवल 237 ही हैं. अर्थात एक प्रतिशत से भी कम. 

इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारतीय बाजार पर विदेशियों में कब्जा जमाने के लिये होड़ मची है. प्रस्तुत मसौदा इसमें इजाफा ही करने जा रहा है. यह इजाफा उन्हीं के धन संपत्ति का होगा, जिसके पास आदिम काल से ही येन-केन प्रकारेण संपदा जमा होती आयी है.

वास्तव में बौद्धिक संपदा विश्व की सबसे मूल्यवान संपदा है. तथा विश्व व्यापार संगठन के समझौते के माध्यम से इसका अंर्तराष्ट्रीयकरण ही किया जा रहा है. इससे बच कर निकलने की जरूरत है न कि इनके हॉ में हॉ मिलाने की आने वाले समय में जितने युद्ध तेल के लिये हुए है उससे ज्यादा बौद्धिक संपदा के लिये होने वाले है.

2008 में आये आर्थिक मंदी के पश्चात्, विकसित देश विकासशील देशों की बाजार पर नजर गड़ाये हुए हैं. इसे एक और उदाहरण से समझा जा सकता है. 2009 में विश्व का सकल घरेलू उत्पादन था 0.7 प्रतिशत, जो 2010 में 5.1 प्रतिशत का हो गया. यदि इसी समय के पेटेंट आवेदनों की तुलना की जाये तो 2009 में -3.5 प्रतिशत आवेदन मिले जो 2010 में 7.2 प्रतिशत के हुए. अर्थात सकल घरेलू उत्पादन की तुलना में ये आवेदन ज्यादा थे. 

सन् 2010 में अमरीका का सकल घरेलू उत्पादन 3 प्रतिशत था लेकिन पेटेंट तथा ट्रेड मार्क का आवेदन 7.5 प्रतिशत, फ्रांस, जमर्नी तथा ब्रिटेन का सकल घरेलू उत्पादन- 6.5 प्रतिशत था लेकिन आवेदन 7.1 प्रतिशत आये थे. चीन का सन् 2010 में सकल घरेलू उत्पादन 10.3 प्रतिशत था लेकिन पेटेंट के लिये आवेदन आये 24.3 प्रतिशत.

हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि विकास नहीं हुआ पर पेटेंट के लिये कोशिश जारी है. कम विकास का अर्थ अनुसंधान पर कम खर्च का होना है. जब अनुसंधान तथा आविष्कार कम हुए हैं तो पेटेंट के लिये आवेदन कैसे बढ़ गये. इसका सीधे सीधे अर्थ यह है कि ऊल जलूल चीजो के लिये पेटेंट दायर किये गये ताकि अपने संकट का बोझ विकासशील देशों पर लादा जा सके. 

यहां पर इस बात का उल्लेख करना वाजिब ही होगा कि मई 2007 में मैंकेंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट द्वारा एक अध्ययन प्रकाशित किया गया था. जिसमें भारत को सोने की चिड़िया की संज्ञा फिर से दी गई है. कारण यह है कि सन् 2007 में भारत में 50 मिलियन लोग मध्यम वर्ग के थे जो कि सन् 2025 तक 583 मिलियन का हो जायेगा. इनमें से 23 मिलियन तो पैसे वाले होगें. इस प्रकार भारत का बढ़ता उपभोक्ता बाजार ही उसे फिर से सोने की चिड़िया बना देगा. जिसे पकड़ने के लिये सभी उतावले हो रहे हैं. पेटेंट का अंर्तराष्ट्रीयकरण इसका एक माध्यम मात्र है. 

मंत्री महोदय, हमारा आपसे विनम्र आग्रह है कि नीति निर्धारण के वक्त भारत के नागरिकों का हित सर्वोपरि रखा जाये. हमें आशा है कि जनहित में आप ऐसा कोई कदम नहीं उठायेंगें, जिससे विदेशी धन कुबेरों को फायदा हो.


Ajay Kumar

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